सब दायें भागते हैं
शगुन श्रीवास्तव
हिंदी तरंग, बिट्स पिलानी, हैदराबाद कैंपस
हिंदी तरंग, बिट्स पिलानी, हैदराबाद कैंपस
भारत में कोई उदारवादी नेता नहीं है। सब दायें भागते हैं।
राजनैतिक वाम, दक्षिण एवं मध्य, तीनों ही पंथों का प्रतिनिधित्त्व करती पार्टियाँ हैं, पूंजीवाद, समाजवाद व साम्यवाद का पालन (या उसका दावा) करती पार्टियाँ भी हैं, परन्तु किसी भी लोकप्रिय पार्टी अथवा नेता का बयान सामाजिक उत्थान का मुद्दा नहीं छूता। यह एक प्रमुख कारण है कि हमारे समाज में जातिवाद, पितृसत्तात्मकता जैसी कुरीतियाँ आज भी मौजूद हैं। सब दायें भागते हैं।
एलजीबीटी समाज का ही उदाहरण लें- वर्षों से समलिंगी व उभयलिंगी अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, परन्तु अभी तक न समलिंगी विवाह जायज़ है, और न ही समलैंगिक यौन सम्बन्ध। विज्ञान भी समलैंगिकता को प्राकृतिक ठहरा चुका है परन्तु आज भी संविधान में ये अप्राकृतिक हैं। और हमारे सभी प्रिय नेता इसपर चुप्पी साधे बैठे हैं। सब दायें भागते हैं।उसी प्रकार भारतीय नारीवाद भी उन्नीसवीं सदी की सोच का शिकार बन रहा है। आज भी कितने ही नियम व प्रावधान हैं, जिनमें कि स्पष्ट रूप से स्त्री को अपने पति के अधीन मान लिया जाता है। संरक्षक के नाम में भी पिता अथवा पति का नाम माँगा जाता है। अकेली माँ को कितनी ही जगह संरक्षक नहीं माना जा सकता, और बिना विवाह की संतान आज भी नाजायज़ है। यदि किसी भी धन-संपत्ति अथवा अन्य क्षेत्र में स्त्री और पुरुष के लिए अलग प्रावधान हैं, और यदि वह प्रावधान इस बात पर आधारित है कि स्त्री पुरुष पर निर्भर है, तो उस प्रावधान में बदलाव की आवश्यकता है। परन्तु ये नियमावलियां कहीं दबी हुई हैं। कोई इनपर ध्यान नहीं देता। समय बदल रहा है, पर नियम नहीं। सब दायें भागते हैं।कहने को हम धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हैं, परन्तु हमारे संविधान में कई मामलों में विभिन्न धर्मों के लिए अलग अलग प्रावधान हैं। उदाहरण के तौर पर हिन्दू मैरिज एक्ट व मुस्लिम पर्सनल लॉ (जो कि शरिया कानून पर आधारित है)। इनका मकसद इन धर्मों की आस्था का सम्मान करना नहीं, बस इन वर्गों का तुष्टिकरण है। लोग अपनी धार्मिक आस्था की आड़ ले कर जो कर लें, उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है- जितने तोगड़िया, जाकिर नाइक खड़े हो जाएँ, जितना पैसा तिरुपति बालाजी के खजाने में पड़ा रहे, कोई रोक नहीं सकता। धार्मिक स्थलों को कभी गिराया नहीं जा सकता है। मंदिर भले सड़क के बीच में क्यों न हो, मस्जिद सरकारी जमीन कब्ज़ा कर क्यों न बनाई गई हो, उन्हें गिराया नहीं जा सकता है। इसके अतिरिक्त, आज भी भारत में नास्तिकता को हेय दृष्टि से देखा जाता है, व “कोई धर्म नहीं” आज भी विकल्प नहीं होता। इन नियमों पर कौन ध्यान देता है? सबको वोटबैंक प्यारे हैं। सब दायें भागते हैं।
जातिवाद की आज के समय में कोई जगह नहीं है। यह एक अत्यंत ही दकियानूसी प्रणाली है जिसका उपयोग सिर्फ सामाजिक वर्गीकरण एवं वोटबैंक राजनीति के लिए होता है। कोई अर्थ नहीं है कि जाति पहचान का एक आधिकारिक आधार रहे, अथवा जाति का कॉलम भी हो किसी सरकारी फॉर्म में। दुनिया के किसी भी धर्मनिरपेक्ष देश में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, बस हमारे नेताओं ने इस सामाजिक कर्करोग को वोट पाने हेतु जिंदा रखा है, और हमें बांटे रखा है। सब दायें भागते हैं।
कहने को सब भारत की प्रगति का सपना देखते हैं, पर जैसे ही हमें कोई कदम अपनी पारंपरिक सोच के विरुद्ध उठाना पड़ता है, तो हम वही “संस्कृति के रक्षक” बन जाते हैं। हम अपनी ही प्रगति के दुश्मन बन जाते हैं। सब दायें भागते हैं।
राजनैतिक वाम, दक्षिण एवं मध्य, तीनों ही पंथों का प्रतिनिधित्त्व करती पार्टियाँ हैं, पूंजीवाद, समाजवाद व साम्यवाद का पालन (या उसका दावा) करती पार्टियाँ भी हैं, परन्तु किसी भी लोकप्रिय पार्टी अथवा नेता का बयान सामाजिक उत्थान का मुद्दा नहीं छूता। यह एक प्रमुख कारण है कि हमारे समाज में जातिवाद, पितृसत्तात्मकता जैसी कुरीतियाँ आज भी मौजूद हैं। सब दायें भागते हैं।
एलजीबीटी समाज का ही उदाहरण लें- वर्षों से समलिंगी व उभयलिंगी अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, परन्तु अभी तक न समलिंगी विवाह जायज़ है, और न ही समलैंगिक यौन सम्बन्ध। विज्ञान भी समलैंगिकता को प्राकृतिक ठहरा चुका है परन्तु आज भी संविधान में ये अप्राकृतिक हैं। और हमारे सभी प्रिय नेता इसपर चुप्पी साधे बैठे हैं। सब दायें भागते हैं।उसी प्रकार भारतीय नारीवाद भी उन्नीसवीं सदी की सोच का शिकार बन रहा है। आज भी कितने ही नियम व प्रावधान हैं, जिनमें कि स्पष्ट रूप से स्त्री को अपने पति के अधीन मान लिया जाता है। संरक्षक के नाम में भी पिता अथवा पति का नाम माँगा जाता है। अकेली माँ को कितनी ही जगह संरक्षक नहीं माना जा सकता, और बिना विवाह की संतान आज भी नाजायज़ है। यदि किसी भी धन-संपत्ति अथवा अन्य क्षेत्र में स्त्री और पुरुष के लिए अलग प्रावधान हैं, और यदि वह प्रावधान इस बात पर आधारित है कि स्त्री पुरुष पर निर्भर है, तो उस प्रावधान में बदलाव की आवश्यकता है। परन्तु ये नियमावलियां कहीं दबी हुई हैं। कोई इनपर ध्यान नहीं देता। समय बदल रहा है, पर नियम नहीं। सब दायें भागते हैं।कहने को हम धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हैं, परन्तु हमारे संविधान में कई मामलों में विभिन्न धर्मों के लिए अलग अलग प्रावधान हैं। उदाहरण के तौर पर हिन्दू मैरिज एक्ट व मुस्लिम पर्सनल लॉ (जो कि शरिया कानून पर आधारित है)। इनका मकसद इन धर्मों की आस्था का सम्मान करना नहीं, बस इन वर्गों का तुष्टिकरण है। लोग अपनी धार्मिक आस्था की आड़ ले कर जो कर लें, उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है- जितने तोगड़िया, जाकिर नाइक खड़े हो जाएँ, जितना पैसा तिरुपति बालाजी के खजाने में पड़ा रहे, कोई रोक नहीं सकता। धार्मिक स्थलों को कभी गिराया नहीं जा सकता है। मंदिर भले सड़क के बीच में क्यों न हो, मस्जिद सरकारी जमीन कब्ज़ा कर क्यों न बनाई गई हो, उन्हें गिराया नहीं जा सकता है। इसके अतिरिक्त, आज भी भारत में नास्तिकता को हेय दृष्टि से देखा जाता है, व “कोई धर्म नहीं” आज भी विकल्प नहीं होता। इन नियमों पर कौन ध्यान देता है? सबको वोटबैंक प्यारे हैं। सब दायें भागते हैं।
जातिवाद की आज के समय में कोई जगह नहीं है। यह एक अत्यंत ही दकियानूसी प्रणाली है जिसका उपयोग सिर्फ सामाजिक वर्गीकरण एवं वोटबैंक राजनीति के लिए होता है। कोई अर्थ नहीं है कि जाति पहचान का एक आधिकारिक आधार रहे, अथवा जाति का कॉलम भी हो किसी सरकारी फॉर्म में। दुनिया के किसी भी धर्मनिरपेक्ष देश में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, बस हमारे नेताओं ने इस सामाजिक कर्करोग को वोट पाने हेतु जिंदा रखा है, और हमें बांटे रखा है। सब दायें भागते हैं।
कहने को सब भारत की प्रगति का सपना देखते हैं, पर जैसे ही हमें कोई कदम अपनी पारंपरिक सोच के विरुद्ध उठाना पड़ता है, तो हम वही “संस्कृति के रक्षक” बन जाते हैं। हम अपनी ही प्रगति के दुश्मन बन जाते हैं। सब दायें भागते हैं।