महिला क्रिकेट एवं हमारा ढीला समाज
- कुशल राजेंद्र विजयवर्गीय
हाल ही में हुए महिला क्रिकेट विश्वकप में भारतीय टीम उपविजेता रही। टीम की यह उपलब्धि भारतीय सामाजिक नाले में रहने वाले उन कीड़ों के मुँह पर करारा थप्पड़ था, जो महिलाओं को पुरुष से हीन मानते आ रहे हैं। ऐसी बात नहीं कि ऐसा थप्पड़ इन्हें पहले कभी नसीब न हुआ हो, परन्तु इन पर कुछ ख़ास असर पड़ता नहीं है। ना जाने कितनी कुरीतियों से लड़ते हुए यह सफर तय करने वाली भारतीय टीम ने चमत्कार से कुछ कम कार्य नहीं किया है। सलाम है उनके इस साहस को, इस प्रतिभा को।
आज इस टीम को हर संभव दिशा से तारीफों के पोटले मिल रहे हैं, पुरस्कारों की फुहारें की जा रही हैं, और महिला टीम को भी उनकी उपलब्धि का एहसास हो रहा होगा, कि उनको समाज ने बेहतर पहचान तो दी, परन्तु इन सबके बीच टीम यह सोच कर हँस ज़रूर रही होगी कि भई वाह! कल तक जिस समाज, जिस देश को हमारे अस्तित्व का न तो कोई भान था, और न ही कोई परवाह थी, आज वही लोग इतने हक़ से तारीफ कर रहे हैं, जैसे बरसों से हमारा सहारा बने खड़े हों। हाँ, इस देश ने जागने में बरसों लगा दिए, हम अक्सर कई अवसरों पर सोते ही तो रहते हैं। भारत मसालों का नहीं, भावनाओं का देश है। आज महिला टीम की उपलब्धि को देखा, तो बस कूद पड़े तारीफों के पुल बाँधने। आधे से ज़्यादा लोग तो अभी भी यह बात नहीं मान पा रहे होंगे कि इंसान की काबिलियत उसका लिंग तय नहीं करता, पर भावनाओं का जोश है, तो साथ दिए जा रहे हैं।
आज महिला टीम के फाइनल तक के सफर से न सिर्फ़ लोग गर्वित हैं, बल्कि फाइनल की हार की टीस भी मन में लिए घूम रहे हैं, जो अपने आप में एक उपलब्धि है, परन्तु आज हमारे पास फिर एक मौका है। 2-3 दिन तक तारीफों के पुल बाँध कर कृपया दोबारा न सो जाएँ। उठें और महिला टीम का भरपूर सहयोग करें। उनकी काबिलियत का बराबर सम्मान करें। उनसे उमीदें बाँधें, हाँ वो उम्मीदें कभी टूट भी सकती हैं, तो इस लायक बनें कि हम उनसे निराश भी हो सकें, परन्तु ऐसे भावनात्मक जुड़ाव को हमें कमाना होगा।
जिसकी कल तक खबर नहीं रखते थे, अचानक उसके कसीदे काढ़ने या उसके पुतले जलाने में तो हमें महारत हासिल है, तो आइए इस बार कुछ नया प्रयोग करते हैं। इस नींद को तोड़कर, अपनी गलती मानकर थोड़ा बदलने की कोशिश करते हैं।
( यह विचार काबिलियत को लिंग आधारित न मानने वाले एक पागल इंसान के हैं, कृपया रूढ़िवादी लोग इसे दिल पर न लें)